जीवन की राह कोई नरम गलीचा नहीं, गिरने से क्यों डरें
आजकल एक नए तरह का एमबीए चल पड़ा है। इसमें प्लेसमेंट की गारंटी नहीं होती, वो आपको बिजनेस सेटअप करना सिखाएंगे। शार्क टैंक के जमाने में युवा पीढ़ी को ये बात काफी आकर्षक लगती है, बड़े-बड़े सपने दिखते हैं। किसी और की गुलामी नहीं करनी, अपना ही बॉस बनूंगा।
बात में दम तो है, मगर एक छोटी-सी समस्या। कोर्स की फीस कुछ 29 लाख रुपए है। कोई नहीं, पापा दे देंगे। पढ़ाई के लिए तो इस देश के मां-बाप किसी भी हद तक जा सकते हैं। लोन ले लेंगे, घर गिरवी रख देंगे। बस एक सर्टिफिकेट मिल जाए।
अब हमारा बिट्टू ‘क्वालिफाई’ हो गया। अगर वही बिट्टू कहे, पापा मुझे अपना बिजनेस खोलना है, आप मुझे दो लाख रु. दे दो, तो दैया रे दैया। दो लाख ऐसे ही दे दूं, डूबने के लिए? नहीं, कोर्स कर लो तो बेहतर रहेगा। वैसे भी हम नहीं चाहते कि तुम दर-दर फिरो, ठोकरें खाओ।
इसलिए आज हर छोटी-बड़ी चीज हम करते हैं किसी और के सहारे। ये है कोचिंग का कल्चर। जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, ट्यूशन में सिर्फ वो बच्चे जाते थे जो कमजोर थे। बाकी अपनी टीचर्स से थोड़ी हेल्प मांग लेते, और अपने ही बल पर पढ़-लिख कर पास होते थे।
सबसे पहले एंट्रेंस एग्जाम की कोचिंग शुरू हुई, उसके बाद बोर्ड एग्जाम के लिए। अब तो केजी से पीजी तक हर विद्यार्थी एक ट्यूशन क्लास से दूसरी में भाग रहा है। स्कूल के बाद खेलने-कूदने का समय ही नहीं। पर अगर खेलना भी हो तो भाई, वहां भी कोचिंग तो जरूरी है।
बचपन में मुझे स्केटिंग का शौक था। खूब जिद करी तो मम्मी-पापा ने स्केट्स दिलवा दिए। पहनकर जब पहली बार पैर रखा, तो पहुंची सीधी जमीन पर। लेकिन 10-15 दिन में बैलेंस बनाना सीख लिया। और फिर जो स्पीड से मैंने स्केटिंग की, सब हैरान।
आज देख रही हूं कि स्केटिंग के लिए बच्चों की कोचिंग होती है। वो हेलमेट भी पहनते हैं, घुटने के पैड भी। गिरेंगे, तो चोट नहीं लगेगी। फिसलेंगे, तो कोई संभाल लेगा। लेकिन गिरने-फिसलने से इतना डर क्यों? अगर मखमली कारपेट पर स्केटिंग करना मुमकिन होता तो शायद मां-बाप को और भी सुकून मिलता।
लेकिन जीवन की राह एक नरम गलीचा नहीं। वहां पत्थर भी मिलते हैं, गड्ढे भी। बिना चप्पल भी इस राह पर कभी चलना पड़ेगा। कांटे घुसेंगे, दर्द सहना पड़ेगा। जिसने डिजाइनर जूतों में चलना सीखा, रुक जाएगा, जब तक उसका हाथ पकड़ने कोई नहीं आएगा।
स्केटिंग हो या बिजनेस, फॉर्मूला सिंपल है। कुछ करो, गिरो, पढ़ो, उठो। फिर कुछ करो, गिरो, पढ़ो, उठो। ऐसा करते-करते आपको सीख मिल जाएगी। कुछ लॉस भी होगा पर अक्ल आएगी। कस्टमर को कैसे पटाना है, कम पैसे में कहां से मटेरियल लाना है। खाता कैसे लिखा जाता है, किसमें फायदा किसमें घाटा है।
महाभारत में पांडवों-कौरवों ने द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु माना और मिट्टी से उनकी प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा के सामने एकलव्य ने श्रद्धा-भक्ति से अभ्यास किया और कहा जाता है उसकी तीरंदाजी से अर्जुन भी चकित हो गया।
कहने का मतलब ये है कि जो महंगे कोर्स की फीस ना दे सके, उसे निराश नहीं होना चाहिए। आज मिट्टी की प्रतिमा नहीं, सिर्फ इंटरनेट कनेक्शन की जरूरत है। हर फील्ड की जानकारी वहां है, उसे सींचकर, अंदर खींचकर, बस अभ्यास कीजिए।
आपकी स्क्रिप्ट कौन लिख रहा है, उसमें दम है या बोर लग रहा है। कहानी में ट्विस्ट लाना है तो कौन रोक रहा है, शायद अंदर का डर टोक रहा है। लेकिन प्रकृति का एक उसूल है, स्थिर रहना तो भूल है। आप चुप-चाप खड़े रहेंगे, पर धरती हिलेगी, ओले पढ़ेंगे। गिरकर उठना तो जरूरी है, नहीं तो लाइफ अधूरी है। परमवीर है वो इंसान, जिसके मुंह पर है मुस्कान। गिरकर उठना उसकी शान।