हर शहर को ऐसे मेयर, कमिश्नर की जरूरत है, जो मुहिम शुरू करें तो पब्लिक जुड़ जाए
जागो मोहन प्यारे… कचरा देने का टाइम हो गया है। जी हां, हर सुबह लगभग साढ़े छह बजे, एक हंसता-गाता कचरे का ट्रक इंदौर की गली-सड़कों में गूंजता है। हर घर से लोग टोकरी-बाल्टी-डस्टबिन के साथ उसका स्वागत करते हैं। फिर सहूलियत से गीला और सूखा कचरा ट्रक के दो अलग-अलग कम्पार्टमेंट में डाल देते हैं।
इंदौरवासियों के लिए ये अब जिंदगी का हिस्सा बन चुका है, लेकिन बाहर वालों के लिए है अद्भुत नजारा। क्यूं मेरा शहर इंदौर की तरह साफ-सुथरा नहीं हो सकता? उसके हवा-पानी में कुछ खास है? या कोई नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा है? जी नहीं, ये कमाल है संकल्प-शक्ति का।
वैसे आज से दस साल पहले इंदौर के मोहल्लों से भी बड़ी-बड़ी पेटियों से कचरे की बू आती थी। मगर 2015 में मालिनी सिंह गौर जब इंदौर की मेयर बनीं, तो सफाई को उन्होंने अहम मुद्दा बनाया। उनका साथ दिया कमिश्नर मनीष सिंह ने। फिर सलाहकार के रूप में आए कचरा प्रबंध के क्षेत्र में पीएचडी असर वारसी।
योजना बहुत बनती हैं मगर कागज पर ही रह जाती हैं। वो इसलिए कि पब्लिक के फायदे में किसी प्राइवेट पार्टी का नुकसान होता है। पिछले कुछ सालों में एक ट्रेंड शुरू हुआ, सरकारी काम को आउटसोर्स करने का। भाई, नगर निगम के कर्मचारी काम नहीं करते, तो कॉन्ट्रैक्ट किसी बाहर वाले को दे दिया जाए।
आइडिया तो अच्छा था, मगर असल में कॉन्ट्रैक्टर की कोई जवाबदारी नहीं। कामचोर तो वो भी हैं, बस करोड़ों की कमाई में से कुछ हिस्सा किसी नेता की जेब में जाने लगा। मालिनी गौर ने ऐसा ही एक कॉन्ट्रैक्ट रद्द करके बैसिक्स म्युनिसिपल वेस्ट नाम की सामाजिक सोच वाली कम्पनी को काम की जिम्मेदारी दी, जिसने नगर निगम के कर्मचारियों को उत्साहित किया और अनुशासित भी।
जब ये मुहिम शुरू हुई, 5500 सफाई कर्मचारियों में से रोज 30-40 प्रतिशत ही उपस्थित होते थे। पहले तो उन्हें प्यार से समझाया, जो नहीं माने उन्हें सस्पेंड किया गया और बर्खास्त भी। बायोमेट्रिक द्वारा अटेंडेंस का सिस्टम लागू किया गया। आज वही कर्मचारी अपने शहर को सबसे स्वच्छ रखने का दायित्व सम्भाल रहे हैं।
सोचने की बात ये है कि आदमी काम से मुंह क्यूं फेरता है। क्यूंकि हम उन्हें अपने साथ जोड़ नहीं पाते। अगर उच्च अधिकारी कुर्सी पर बैठकर ऑर्डर देगा, टेबल के नीचे से नोट लेगा, तो स्टाफ भी उसी पथ पर चलेगा। पर जब अफसर कचरे के ट्रक के साथ खुद निकल पड़ा तो सब तक मैसेज पहुंच गया कि ये काम के प्रति सीरियस हैं, हमें भी होना पड़ेगा।
आज लाखों युवा सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी में लगे हुए हैं। ऐसा ही एक लड़का मुझे इंदौर में जब मिला तो मैंने पूछा, आईएएस क्यूं बनना चाहते हो? उसने समाजसेवा, देशसेवा इत्यादि वाला जवाब दिया। मैंने कहा, जब तुम आईएएस बन जाओगे, तुम्हारे हाथ में पॉवर आ जाएगा, तब अपने ये आदर्श न भूलना।
आखिर आदमी काम से मुंह क्यूं फेरता है? क्यूंकि हम उन्हें अपने साथ जोड़ नहीं पाते। अगर उच्च अधिकारी कुर्सी पर बैठकर ऑर्डर देगा, टेबल के नीचे से नोट लेगा, तो स्टाफ भी उसी पथ पर चलेगा।
खैर, हर शहर को ऐसे मेयर, ऐसे कमिश्नर की जरूरत है जो मुहिम शुरू करें तो पब्लिक जुड़ जाए। स्वच्छता एक सपना नहीं, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तो आम नागरिक कर क्या सकता है? हमें अपने नगर निगम पर दबाव डालना होगा। अगर हम रास्ता रोको नहीं कर सकते तो सोशल मीडिया से उनको सचेत करना शुरू करें।
जब भी, जहां भी कचरा दिखे, उसकी फोटो लेकर म्युनिसिपल कमिश्नर और नगर-सेवक को टैग करें। ईमेल और वॉट्सएप से उन तक संदेश पहुंचाएं। जब वोट मांगने आपके घर पर आएं तो सफाई का मुद्दा प्रबलतापूर्वक उठाएं। मेरा शहर स्वच्छता सर्वेक्षण में इतना पीछे क्यूं है, आप हमें बताएं।
पब्लिक मीटिंग की मांग करें। कचरे पर चर्चे अपने पब्लिक पार्क में करें। युवा पीढ़ी को इस मुहिम में शामिल करें। उनके जोश और आक्रोश का फायदा लें। आज हमें देश के डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर गर्व है, जैसे कि आधार और यूपीआई। वही गर्व फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए महसूस करना चाहते हैं, भाई।
विदेशों की साफ-सुथरी सड़कें देखकर हमें लगता था कोई जादू है। लेकिन अब जब इंदौर-उज्जैन-भोपाल में वही सीन दिख रहा है, इसका मतलब मामला अपने काबू में है। हमें आवाज उठानी होगी, अपनी मांगें जतानी होंगी। नाक बंद करके, आंख बंद करके, कुछ नहीं बदलेगा। जय हो, जब सफाई हो।