अगर आप जनता में किसी चीज की आदत डलवा सकते हैं तो उसमें प्रॉफिट बहुत है
क्या आप चाय का कप हाथ में लिए हुए सुबह का अखबार पढ़ रहे हैं? हर घर की यही कहानी है। सुबह की चाय के बिना हम में से कइयों की नींद नहीं खुलती। चैन नहीं मिलता। चाहे ट्रेन में हो या प्लेन में, चाय की तलब कहीं भी, कभी भी हो सकती है। चाय दिल की पुकार है, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
मगर क्या आप जानते हैं कि आज से दो सौ साल पहले, भारत में चाय कोई जानता भी नहीं था? दरअसल चाय का सेवन हमारे पड़ोसी देश से शुरू हआ। कहा जाता है कि 2737 ईस्वी पूर्व में चीन के सम्राट शेनोंग ने आदेश दिया था कि पानी उबालकर ही पीना चाहिए। एक दिन पेड़ की छांव के नीचे आराम फरमा रहे थे तो हवा से कुछ पत्तियां उनके पानी के प्याले में आ गिरीं।
पानी का रंग भी बदल गया, स्वाद भी। उसे पीकर आनंद आया और थकान भी मिट गई। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली जब चीन पहुंचे तो उन्होंने चाय के बारे में दुनिया को बताया। मगर चाय के पीछे पागल हुए अंग्रेज। उन्हें चाय की ऐसी लत लगी कि एक नहीं, दो देशों का इतिहास ही बदल गया।
चीन से चाय की डिमांड इतनी बढ़ गई कि ईस्ट इंडिया कम्पनी परेशान हो गई। उसके बदले क्या बेचें? उन्हें मालूम पड़ा कि चीन में अफीम एक औषधि के रूप में इस्तेमाल होती है, और नशे के लिए भी। लेकिन अफीम की आदत से लोगों को बचाने के लिए, उसका आयात प्रतिबंधित था। लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी थी चालाक। उन्होंने अफीम की तस्करी का धंधा शुरू किया। जैसे डिमांड बढ़ी तो सप्लाई में भी बढ़ोतरी करनी पड़ी।
भारत के किसानों को मजबूर किया गया कि आप अफीम उगाएंगे। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में 25 से 50 प्रतिशत जमीन इस पौधे ने हड़प ली। मगर यह कैश क्रॉप उगाने का हमें कोई फायदा नहीं मिला।जिस भाव में कम्पनी अफीम खरीद रही थी, उस से ज्यादा किसान खाद, सिंचाई और लेबर में खर्च कर रहा था। पर चाहते हुए भी वो अफीम की खेती छोड़ नहीं सके। जुल्म और अत्याचार एक तरफ, खर्चा दूसरी तरफ। नतीजा, भुखमरी। 1860 से 1900 के बीच दाने-दाने के लिए तरसते हुए लाखों की मौत हुई।
दूसरी तरफ चीन में आम आदमी को अफीम की लत लग गई। दो बार ब्रिटेन और चीन के बीच महायुद्ध हुआ, जिसे कहते हैं ओपियम वार्स। जीत हुई अंग्रेजों की और ईस्ट इंडिया कम्पनी को कानूनी तरीके से अफीम बेचने की इजाजत मिली। इस काम में घुसे भारतीय, जिसमें खासकर पारसी समुदाय के लोग काफी थे।
आज टाटा ग्रुप एक विशाल व्यापारिक साम्राज्य है, जिनके ऊंचे सिद्धांतों की काफी चर्चा होती है। वो भी इस धंधे में शामिल थे। जमशेतजी जीजीभोय, जिनके नाम से जेजे अस्पताल और जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट्स आज भी मुम्बई शहर में शान से चल रहे हैं, उनकी सम्पत्ति-जायदाद और बाद में समाज-सेवा, सब अफीम की देन है।
शायद ये सब पढ़ते-समझते आपकी चाय ठंडी हो गई हो। और दिल भी थोड़ा उदास। कभी सोचा न होगा कि चाय के प्याले के पीछे इतनी दर्दनाक कहानी हो सकती है। खैर, 1850 से अंग्रेजों ने भारत में चाय के बागान लगाने शुरू किए, पहले दार्जीलिंग में, फिर असम। अफीम का कानूनी धंधा धीरे-धीरे समाप्त हुआ, वैसे तस्करी आज भी होती है।
ये इतिहास मैंने स्कूल की किताबों में कभी पढ़ा नहीं। लेकिन जरूर पढ़ाना चाहिए, क्योंकि हमें कई सीख मिलती हैं। एक तो ये कि दुनिया के ज्यादातर युद्ध पैसों के पीछे होते हैं। और दूसरा, अगर आप जनता में किसी चीज की आदत डलवा सकते हैं तो उसमें प्रॉफिट बहुत है।
आज सोशल मीडिया अफीम का काम कर रही है। जंकफूड, ई-शॉपिंग और ईजी लोन भी इसी कैटेगरी में हैं। बहुत जल्दी हम इनके गुलाम बन जाते हैं। और वो इसलिए कि अंदर से हम कमजोर हैं।
आज सोशल मीडिया भी एक तरह से अफीम का काम कर रही है। जंकफूड, ई-शॉपिंग और ईजी लोन भी इसी कैटेगरी में हैं। बहुत जल्दी हम इनके गुलाम बन जाते हैं। और वो इसलिए कि अंदर से हम कमजोर हैं। जब मन में मंथन होता है, आप इमोशनल लॉलीपॉप ढूंढते हैं। चूसकर कुछ क्षण के लिए खुश।
समस्या का सामना तो दूर, उससे आंख भी नहीं मिला पाते। अंदरूनी शक्ति कैसे बढ़ाएं? एक छोटा-सा एक्सपेरिमेंट- एक हफ्ता चाय छोड़कर देखिए। मुश्किल होगा, मगर वही तो मजा है। मन की शक्ति से बड़ा कुछ नहीं, जीवन का पेचीदा सच यही।