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0 (0) Rashmi Bansal is a writer, entrepreneur and a motivational speaker. An author of 10 bestselling books on entrepreneurship which have sold more than 1.2 ….

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शिक्षा की फैक्टरी मास-प्रोडक्शन में लगी हुई है, मगर हर विद्यार्थी चाहता है एक गुरु जो उसे राह दिखाए, हममें से एक-एक को किसी का गुरु बनना पड़ेगा

शिक्षा की फैक्टरी मास-प्रोडक्शन में लगी हुई है, मगर हर विद्यार्थी चाहता है एक गुरु जो उसे राह दिखाए, हममें से एक-एक को किसी का गुरु बनना पड़ेगा
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हाल ही में शकुंतला देवी की लाइफ स्टोरी को फिल्म का रूप दिया गया। पांच साल की उम्र में उनके मैथेमैटिक्स जीनियस होने का पता चला तो उनके पिता ने सोचा क्यों न इस टैलेंट का फायदा उठाया जाए। शकुंतला जगह-जगह शो करने लगीं, पैसे कमाने लगीं। आखिर उनके अद्भुत दिमाग को ‘ह्यूमन कम्प्यूटर’ का खिताब भी मिला।

मगर सोचने की बात यह है, अगर शकुंतला देवी को अच्छी शिक्षा प्राप्त होती तो क्या वे एक वर्ल्ड क्लास मैथेमैटिशियन बन सकती थीं? मेरा सवाल कुछ और है। क्या स्कूल-कॉलेज के दायरे में आकर, उनका जीनियस दिमाग बच पाता? क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी बनाई गई है कि सब लोग एक स्तर पर आ जाएं। यानी शिक्षा से ही दिल उतर जाए।

इसके कारण हैं। ब्रिटिश रूल के दौरान गरु-शिष्य परंपरा छोड़ ब्रिटिश स्टाइल की शिक्षा का चलन हुआ। उनका गोल था ऐसे दिमाग बनाना जो भारतीय होकर भी ‘व्हाइट मैन’ की तरह सोचें। आखिर सरकारी नौकरी तब भी एक बड़ा अट्रैक्शन थी, अब भी है। 1947 में ब्रिटिश अपने देश लौट गए लेकिन उनका बनाया इंफ्रास्ट्रक्टर, चाहे रेलवे हो या आईएस, वो हमने वैसे का वैसा अपना लिया। और शिक्षा प्रणाली भी उसी दलदल में आज भी फंसी हुई है।

हाल ही में देश में नई एजुकेशन पॉलिसी का ऐलान हुआ, जिसमें कई अच्छी अनुशंसाएं हैं। पॉलिसी के तहत वोकेशनल सब्जेक्ट भी बच्चों को सिखाए जाएंगे। कक्षा 6 से 8 के विद्यार्थी दस दिन बिना बैग के क्लास अटेंड करेंगे। उस दौरान वे कारपेंटरी, पेंटिंग, गार्डनिंग, पॉटरी जैसे काम सीखेंगे।

पेपर पर यह बहुत अच्छा लगता है, पर इसका असली इम्पैक्ट क्या होगा। क्या मिडल क्लास फैमिली के बच्चे ऐसे प्रोफेशन अपनाएंगे? कभी नहीं! उनका कॅरिअर पाथ व्हाइट कॉलर जॉब की तरफ ही होगा, यानी कम्प्यूटर के सामने वाला कोई जॉब। हाथ के काम को आज भी ‘दिमाग के काम’ से निचला दर्जा देते हैं।

अगर लुई विटों (एलवी) का बैग डेढ़-दो लाख रुपए में खरीदा है, तो आपने क्या खरीदा? डिजाइन तो भद्दी-सी है, आपने ब्रैंड खरीदा। और वह ब्रैंड बना है किस चीज पर? ‘केयरफुली हैंड-क्राफ्टेड’ (हाथों से बनाया गया)। ये हमारे देश में तो आम बात है। साड़ियों से लेकर फर्नीचर तक किसी के हाथों से ही बनता है। लेकिन हम उसे ‘हैंडीक्राफ्ट’ का नाम देकर स्टेट गवर्नमेंट के इम्पोरियम में बेचते हैं।

कीमत इतनी कम कि एक एलवी बैग की कीमत में आधा इम्पोरियम खरीद सकते हैं। फैक्टरी में बने मास-प्रोड्यूस्ड कपड़े, जूते, जेवर हम गर्व से पहनकर घूम रहे हैं। ऐसा माइंडसेट होते हुए, शिक्षा से कोई खास बदलाव नहीं आ सकता। अगर हमें पारंपरिक कला को सचमुच बढ़ावा देना है तो विद्यार्थियों के लिए एक कंप्लीट कॅरिअर पाथ बनाना होगा। उदाहरण के लिए मुझे पॉटरी में कॅरिअर बनाना है तो आईआईटी की तरह 5 नेशनल इंस्टीट्यूट शुरू करने होंगे, जहां पुरातन और आधुनिक तकनीक सिखाई जाएं। नई सोच, नई राह, नया जोश।

कोर्स खत्म करने पर ग्रैजुएट्स को बिजनेस शुरू करने में सहायता भी मिले। ताकि वे हाथ से बने सामान को कौड़ी के भाव न बेचकर, ब्रैंड बनाएं। पेरिस और लंदन की हाई स्ट्रीट पर एलवी और गुच्ची के बगल में हमारे ब्रैंड्स का भी बोलबाला हो।

मगर आज हालात यह है कि कुम्हार का बच्चा भी ‘मॉडर्न शिक्षा’ लेकर क्लर्क बनना चाहता है। क्योंकि उसे चाहिए सम्मान। पीढ़ी दर पीढ़ी कला की बागडोर मां-बाप अपने बच्चों के हाथों में सौंपते थे। वही हाथ आज इस भ्रम में कलम पकड़ रहे हैं कि दुनिया के दरवाजे उनके लिए खुलेंगे। जब वो बाहर ताकते रह जाएंगे तो क्या होगा?

शिक्षा की फैक्टरी मास-प्रोडक्शन में लगी हुई है। मगर हर विद्यार्थी चाहता है एक गुरु जो उसे राह दिखाए। शायद हममें से एक-एक को किसी युवक या युवती का गुरु बनना पड़ेगा। क्योंकि लाइफ-एक्सपीरियंस से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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