हम एक बेस्ट फ्रेंड की तलाश में रहते हैं, जो हमें प्यार दे, पर खुद को प्यार के लायक समझते हैं?
बड़े जब आशीर्वाद देते हैं तो अकसर वो कहते हैं- जीते रहो। पर सच बताइए, क्या मन ही मन नहीं लगता कि यह जीना भी कोई जीना है? अखबार खोलो, दुनिया भर की बुरी खबरें। सड़क पर स्कूटर चलाओ, खड्डे ही खड्डे। घर पर कोई ठीक-से बात नहीं करता, ऑफिस में बिगड़ा हुआ बॉस। आदमी खुश रहे तो कैसे?
मगर इलायचीराम को देखो। नुक्कड़ पर पान बेचता है, चेहरे पर हर वक्त मुस्कान। वही पान बना रहा है बीस साल से, पर कभी बोर होने की शिकायत नहीं की। उधार मांगने वाले को गुस्से से नहीं, प्यार से ना बोलता है। घर पर भी ऐसा मीठा व्यवहार करता होगा? आखिर राज क्या है…
भाई, राज ये है कि भगवान ने हर किसी को अलग बनाया। कुछ लोग रोज सूरजमुखी की तरह खिलते हैं, कुछ लोग सुबह से ही कुछ मुरझाए हुए मिलते हैं। ये इस पर डिपेंड करता है कि आपने दिमाग पर कैसा चश्मा पहना हुआ है। काले चश्मे वाले को दुनिया काली- यानी कि निगेटिव- दिखती है। मैं असली चश्मे की नहीं, एटिट्यूड की बात कर रही हूं।
ये नजरिया आता कहां से है? कुछ तो जेनेटिक होता है- बचपन से ही नजर आ जाता है। एक बच्चा दिनभर रोता है, दूसरा संतुष्ट जीव है। कहते हैं कि कुछ संस्कार हमें पिछले जन्मों से प्राप्त होते हैं। लेकिन आप किन हालात में पले, आपके मां-बाप का रवैया कैसा था, इन चीजों का भी असर पड़ता है।
अब आप कहोगे क्या करूं? मैं जैसा हूं, वैसा हूं। इसमें मेरा क्या कसूर? सवाल कसूर का नहीं, सवाल ये है कि आप जिंदगी भर दु:खी रहना चाहते हैं या फिर सुखी? अगर सुख चाहिए तो दिमाग की वायरिंग बदलनी होगी। इसको करने की तकनीक लुईज़ हे ने अपनी किताब यू कैन हील योर लाइफ में बाखूबी समझाई है।
सबसे पहली बात है कि अपने आपको एक पीड़ित आत्मा न समझें। अपने मां-बाप, पति-पत्नी-बच्चे, देश-समाज को ना कोसें। हर किसी ने धरती पर जनम लिया है, कुछ सीखने के लिए। जिसको गुस्सा ज्यादा आता है, उसे ऐसी सास मिलेगी जो गुस्सा दिलाती है। ताकि आप सहनशील बन सको। यानी कि जिसे आप अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझते हो, वो है आपकी सबसे बड़ी टीचर।
खैर, ये तो फिलॉस्फी वाली बात हो गई, पर रोज की जिंदगी कैसे जीएं? पहली बात ये कि अपने आप से दोस्ती करनी होगी। जी हां, हम बेस्ट फ्रेंड की तलाश में रहते हैं, जो हमें प्यार दे, सम्मान दे। लेकिन अपनी जीवात्मा को क्या हम प्यार के लायक समझते हैं? करते हैं एक छोटा-सा एक्सपीरिमेंट।
शीशे के सामने खड़े हो जाइए, अपनी आंखों में आंख डालकर तहेदिल से कहिए, मैं जो हूं, जैसा हूं, अपने आपको प्यार करता हूं, स्वीकार करता हूं। तीन-चार बार रिपीट कीजिए। क्या आपको लगा कि हां, ये शब्द जो मेरे मुंह से निकल रहे हैं, ये सच हैं? या फिर अंदर से एक चीरती हुई आवाज निकली, जैसा तू है कौन तुझ से प्यार करेगा?
जी हां, हम सबके अंदर एक बंदर है, जो दिन-रात चटर-पटर करता है। आप अगर पेड़ के नीचे पिकनिक कर रहे हैं तो बंदर जरूर आपका खाना लेकर भाग जाएगा। फिर सामने वाले पेड़ पर बैठकर खाएगा, आपकी खिल्ली उड़ाएगा। उसी तरह हमारा अंदरूनी बंदर हमें सुकून लेने नहीं देता।
तू मोटा है, नाटा है, बुद्धू है- इस तरह के ताने मारता रहता है। एक नहीं, अनेक बार। सुनते-सुनते हम कन्विंस हो जाते हैं कि जी, मैं तो हूं ही ऐसा। अगर कोई दोस्त आपको रोज धिक्कारे तो वो दोस्ती आप तोड़ देंगे। पर अपने अंदर के बंदर का साथ कैसे छोड़ें? या फिर साथ जीना ही है तो रुख कैसे मोड़ें?
यही तो सबसे बड़ा चैलेंज है। अगले पंद्रह दिन रोज सुबह उठकर, शीशे के सामने खड़े होकर प्यार और स्वीकार वाले मीठे शब्द बोलें। अगर आंसू निकलें, निकलने दें। जब बंदर प्रकट हो, उसे अनदेखा करें। थोड़ा मुश्किल होगा, मगर लगे रहें। और हां, रात को सोने से पहले भी ये क्रिया रिपीट करें।
आपको क्या महसूस हो रहा है, मुझे ईमेल द्वारा लिखकर भेजें। इसके बाद क्या कदम लेना होगा, अगले कॉलम में शेयर करूंगी। तब तक…सेल्फ लव, यानी खुद से प्यार। कीजिए दुरुस्त और बरकरार।
सबके अंदर एक बंदर है, जो दिन-रात चटर-पटर करता है। ताने मारता है। सुनते-सुनते हम कन्विंस हो जाते हैं। कोई दोस्त आपको रोज धिक्कारे तो दोस्ती आप तोड़ देंगे। पर अंदर के बंदर का साथ कैसे छोड़ें?