एग्जाम फेल हुआ है, हार्ट नहीं… जब तक है जान, होंगे इम्तेहान
मेरी डॉगी माया कुछ दिनों से बीमार थी। खाने से मुंह फेर रही थी। कभी खा भी लेती तो एक घंटे बाद उल्टी। जब दो-तीन दिन वो एक कोने में बेजान-सी पड़ी रही तो मैंने सोचा, डॉक्टर को दिखाना चाहिए। गाड़ी में बिठाकर मैं उसे अपने घर के पास वाले जानवरों के अस्पताल में ले गई।
आपको जानकर हैरानी होगी, मुम्बई के महालक्ष्मी में स्थित स्मॉल एनिमल हॉस्पिटल कोई मनुष्यों के 5 स्टार हॉस्पिटल से कम नहीं। वैसे ये नगर पालिका की जमीन है मगर भव्य बिल्डिंग बनाई है टाटा ट्रस्ट ने। मैनेजमेंट भी उन्हीं का है। हर चीज का स्टैंडर्ड ऊंचा। खैर हमारी माया देवी को इस बात से कोई लेना-देना नहीं। जैसे ही हम कंपाउंड में घुसे, वो भांप गई, ये “वो’ जगह है।
अब तो भाई, वो गाड़ी से उतरने को तैयार ही नहीं। तीन स्टाफ आए, मगर बहला-फुसलाकर भी हम उसे बाहर नहीं निकाल पाए। आखिर हार कर मैं वापस घर आ गई। माया के इस व्यवहार के पीछे वजह क्या थी? दस दिन पहले हम उसे इसी अस्पताल में लाए थे, सालाना वैक्सीनेशन के लिए। अब उसके अंदर डर बैठ गया था कि यहां पर इंजेक्शन लगता है। ना बाबा ना, मैं अंदर जाने वाली नहीं। कोई जबर्दस्ती करेगा तो मैं उसे काट लूंगी।
भगवान ने हर प्राणी की प्रोग्रामिंग जब की, उसमें एक फीचर डाल दिया। अगर दिमाग मान ले कि फलाना डेंजर जोन है, तो अंदर से आवाज उठती है- भागो! जंगल में इस आवाज का फायदा है, क्योंकि शायद आपकी अंतर्प्रेरणा सही कह रही है। सौ मीटर दूर शेर खड़ा है, आपकी जान खतरे में है।
अब हम जंगल में नहीं रहते, हर पेड़ के पीछे खतरा नहीं। लेकिन प्रोग्रामिंग वही है। माया को इंजेक्शन का डर है, यानी कि दर्द से। वैसे जब भी ब्लड टेस्ट होता है, मैं भी आंखें मूंद लेती हूं। सुई का डर मेरे अंदर कब, कैसे और कहां पैदा हुआ, उसके पीछे एक कहानी है।
बचपन में हम एक सरकारी डिस्पेंसरी में जाते थे। वहां एक नर्स थीं, सिस्टर जॉर्ज। ब्लड टेस्ट लेने का काम सिस्टर जॉर्ज का था। उन दिनों सुई मोटी होती थी, और उनकी अंगुलियां भी। बंबइया हिन्दी में सिस्टर जॉर्ज का फेवरेट डायलॉग था- “ऐ, डरने का नहीं…’
फिर मेरी पतली-सी बांह उनके ताकतवर हाथों की पकड़ में, और सुई निशाने की ओर। ब्रह्मोस मिसाइल जितनी एक्यूरेसी नहीं थी सिस्टर जॉर्ज की सुई में। एक बार में सही नस नहीं मिलती थी, तो दोबारा सुई चुभातीं। सिस्टर के सांवले चेहरे पर सफेद दांतों वाली मुस्कान और ट्यूब में भरता हुआ लाल खून… यह सीन कुछ ऐसा था कि मुझे वहीं चक्कर आने लगता, एक बार तो मैं बेहोश तक हो गई। तो बस, सिस्टर जॉर्ज की बदौलत मेरे अंदर एक डर-सा बैठ गया।
साल बीत गए। एक दिन मजबूरी में जब ब्लड टेस्ट किया तो मुट्ठी-आंखें बंद। मैने टेक्नीशियन को पूछा, कितना टाइम लगेगा? वो हंस के बोला, मैडम हो गया। सुई कब अंदर गई, कब निकली, पता ही नहीं चला। दर्द का पहाड़ सिर्फ मेरे मन में था, और ऐसे कितने ही काल्पनिक पहाड़ हम अपने अंदर बसा लेते हैं।
किसी को मैथ्स से डर लगता है, किसी को ऊंचाई से। वो कब, कहां, कैसे आपके अंदर आया, थोड़ा चिंतन कीजिए। हो सकता है किसी टीचर ने डांटा हो, गलत जवाब देने पर। आपके नन्हे-से दिल पर चोट ऐसी पहुंची कि फिर हाथ उठाने की हिम्मत नहीं हुई। बीस साल बीत गए लेकिन आज भी मीटिंग में आप अपनी राय देने से कतराते हैं। क्योंकि मन में आशंका है- मैने कुछ गलत कह दिया तो?
डर को जड़ से निकाल फेंकना मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं। सबसे पहले आप एक कागज पर लिख डालिए- ऐसी कौन सी चीज है, जिससे मुझे डर लगता है। 99 प्रतिशत चांस है कि आप लिखेंगे- फियर ऑफ फेल्योर। चलो, एक क्षण के लिए हम मान लें, आपने कोई एग्जाम दिया और फेल हो गए। घर पर लोग नाराज होंगे, दोस्त चर्चा करेंगे।
लेकिन एग्जाम फेल हुआ है, हार्ट फेल नहीं। जब तक हैं जान, होंगे इम्तेहान। डर के आगे जीत है, यही दुनिया की रीत है। ललकारो उसे, सामने लाओ। हिम्मत करो, डर भगाओ।