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0 (0) Rashmi Bansal is a writer, entrepreneur and a motivational speaker. An author of 10 bestselling books on entrepreneurship which have sold more than 1.2 ….

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एक रहवासी कॉलोनी वाला एहसास कैसे मिलेगा?

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मेरे पिताजी की सरकारी नौकरी थी। वेतन ज्यादा नहीं था मगर कभी कमी महसूस नहीं हुई। क्योंकि हम सब एक साथ, एक कॉलोनी में रहते थे। उन दिनों सरकारी नौकरी का एक फायदा था- वो था घर। बहुत बड़ा नहीं मगर सब सुविधाओं के साथ। कैंपस में ही किराने, प्रेस की दुकान, क्रिकेट और फुटबॉल का मैदान।

ऑफिस घर से इतना करीब कि रोज दोपहर को मेरे पिताजी घर पर आकर खाना खाते थे। दस मिनट की झपकी, फिर एक बजकर पचास मिनट होते ही ऑफिस के लिए रवाना। हम जिस बिल्डिंग में रहते थे, वहां सौ फ्लैट थे। हर प्रांत, हर प्रदेश से लोग। उस कॉलोनी में अलग-अलग त्योहार में शामिल होना स्वाभाविक था।

जहां मेरी मां उत्तर भारत में प्रचलित जन्माष्टमी की झांकी लगाती थीं, मेरी साउथ इंडियन सहेली के घर पर नवरात्र में गोलू सजता था। किटी पार्टी का ट्रेंड तब नहीं था, मगर हल्दी कुमकुम काफी अटेंड किए। होली-दिवाली के क्या कहने। बच्चों की टोलियां काफी दिन पहले से तैयारी शुरू कर देतीं। एक चाव था, एक लगाव, साथ में मस्ती करने का।

15 अगस्त, 26 जनवरी को स्कूल के ध्वजारोहण के बाद हम घर की ओर भागते। क्योंकि वहां मजेदार नजारे होते थे, जैसे लेमन-स्पून रेस, 3-लेग्ड रेस आदि। साड़ी का पल्लू कमर में खोंसे आंटियों को फुर्ती से दौड़ता देख हम अचंभित होते। शाम के कल्चरल प्रोग्राम की बात ही कुछ और। बच्चे स्टेज पर छोटे-छोटे नाटक में भाग लेते। एक नाटक का शीर्षक मुझे आज तक याद है- ‘फिर गधे से गधा’। काश, वो स्क्रिप्ट आज मेरे पास होती!

चूंकि हमारी कॉलोनी दक्षिण मुंबई के कोने में थी, हमारी बस चलती थी। जिसका समय फिक्स था और स्टॉप भी। कहीं भी जाने के लिए हम उसी का इस्तेमाल करते थे। इस बस की वजह से बड़े-छोटे, सबको एक दूसरे से जुड़ने का मौका मिल जाता। वैसे हर शाम सब हवा खाने निकलते ही थे।

डॉ. होमी भाभा के हम आभारी, जिन्होंने इतना सुंदर कैंपस बनवाया- हरा-भरा, खुला-खुला। समंदर किनारे एक पत्थर को हमने सोफे का रूप दिया, बरगद की लता से झूलकर बने टार्ज़न। लाल बीज इकट्ठे करते हुए कितनी शामें बिताईंं। किसी का भी दरवाजा जब खटखटाओ, वहां एक सच्चा दोस्त पाओ।

थोड़ा कॉम्पटीशन जरूर था, किसका क्या रैंक आया मशहूर था। हमें पैरेंट्स ने बचपन से कहा; बेटा, मेरे पास ना कोई बंगला। तुम्हे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा, शिक्षा की सीढ़ी पर चढ़ना होगा। इंजीनियरिंग-साइंस की तरफ रुझान था; सफल-सक्षम होने पर ध्यान था। तीस साल बाद हम एक दूसरे से मिलना चाहते हैं, उस सिंपल लाइफ के गुण गाते हैं। जहां कुछ नहीं होते हुए बहुत कुछ था।

कैसे एक कॉलोनी वाला एहसास हमें आज मिले? जहां पड़ोसी की घंटी बजाएं तो स्माइल खिले। अब तो सब कैलेंडर से ही चलता है, चाय का कप लिए दिन अकेले ही ढलता है। हसबैंड-वाइफ को भी शेड्यूल करना पड़ता है मिलने का वक्त। समय का अभाव हो गया इतना सख्त। मेरा बचपन था सुहाना, कहता है बुढ़ापे की ओर जानेवाला। लेकिन मेरी किस्मत है तो अच्छी कि दोस्ती मिली है सच्ची।

वाट्सएप पर पुराने किस्से जब शेयर होते हैं, यादों की दुनिया में हम सब खोते हैं। कितने भाग्यशाली थे हम, तब ना लगता किसी बात का गम। मेरा अगला जन्म भी कॉलोनी में हो, ये मेरी आस है। डिमांड न कोई खास है। धरती पर नहीं तो मंगल ग्रह सही।

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