लोगों का दिल जीतना है तो भाषा को अपना बनाना होगा
आजकल शादी में, पार्टी में, लोग मुझे कहते हैं, ‘दैनिक भास्कर में हम आपका कॉलम पढ़ते हैं, अच्छा लगता है। मगर एक बात बताइए? क्या आप खुद हिंदी में लिखती हैं, या अंग्रेजी में लिखकर वो ट्रांसलेट होता है?’ मेरा सीधा जवाब होता है- हिंदी मेरी मातृभाषा है। अपने विचार अपनी कलम से ही व्यक्त करती हूं।
इसका श्रेय मेरे पिता जी को जाता है। बचपन से घर पर नियम था कि मम्मी-पापा के साथ, भाई के साथ हिंदी में बात होगी। वैसे हम साउथ बॉम्बे में रहते थे, जो उस वक्त बाकी देश से काफी अलग था। घर के बाहर, साइंटिस्ट कॉलोनी में, बच्चे एक-दूसरे से अंग्रेजी में ही बात करते थे।
एक तो कॉलोनी में हर प्रांत, हर प्रदेश के लोग रहते थे। तमिल, तेलुगु, बंगाली, मराठी- सबकी अपनी भाषा। मगर बात ये भी थी कि ‘इंग्लिश इज कूल’। हम पढ़ते थे इंग्लिश मीडियम स्कूल में, सुनते थे इंग्लिश पॉप और कभी फिल्म देखते, तो वो भी इंग्लिश। ऐसे माहौल में थोड़ी शर्म आती थी कि हिंदी क्यों बोली जाए घर में? यह थोड़ा डाउनमार्केट था। खैर, स्कूल में हिंदी अध्यापिका की चहेती छात्रा थी मैं।
गर्मी की छुट्टियों में हम दादी के पास रतलाम जाते थे। लंबी बोर दोपहर में वो सारी कॉमिक्स चाट डालीं जो बंबई में मेरे पास कभी ना होतीं। इंद्रजाल से लेकर चाचा चौधरी, यहां तक कि धर्मयुग के डब्बूजी और सरिता की श्रीमती भी।
हिंदी भाषा का मुझ पर कितना गहरा असर हुआ, ये पता चला जब मैंने अखबारों के लिए लिखना शुरू किया। उस वक्त मैं सोफिया कॉलेज में पढ़ रही थी। थोड़ी पॉकेट मनी कमा लेती थी, साथ में अखबार में नाम देखने का चस्का। तो बस, अपना लेख प्रकाशित करने के चक्कर में अलग-अलग दफ्तर पहुंच जाती।
एक अखबार के यूथ पेज पर मेरे लेख छपने लगे। पता चला एडिटर साहिबा मेरा नाम देख कर नाक-भौं चढ़ाती थीं, ये कैसा आर्टिकल है, जिसमें इंग्लिश के अंदर थोड़ी हिंदी बुरक दी है। बात ये थी कि बोल-चाल की भाषा वो अंग्रेजी नहीं, जो स्कूल में रेन एंड मार्टिन की किताब से सिखाई गई।
अमिताभ बच्चन ने एक बार कहा था, ‘इंग्लिश बहुत मजेदार भाषा है।’ मैं कहूंगी कि काफी फीकी भी है। जब इसमें थोड़ा-सा हिंदी का तड़का लगता है, एक नई जान आ जाती है। इस भाषा को कहते हैं ‘हिंग्लिश’।
अगर लोगों से रिश्ता जोड़ना है, उनका दिल जीतना है, तो क्वीन एलिजाबेथ की स्टाइल में लिखने-बोलने से कुछ नहीं होगा। आपको इंग्लिश को अपना बनाना होगा। मैकडॉनल्ड्स का मशहूर आलू टिक्की बर्गर सिर्फ भारत में बिकता है। इसी तरह चाइनीज नूडल्स को हमने देसी पोशाक पहना कर इंडियन बना लिया है।
वैसे इस देश में तीन-चार भाषाएं समझना-बोलना आम बात है। इसमें गर्व होना चाहिए। पर आजकल एक ट्रेंड है कि बच्चों के सामने पढ़े-लिखे मां-बाप सिर्फ अंग्रेजी में बात करते हैं। खासकर एनआरआई परिवार में या जब माता-पिता दोनों अलग-अलग प्रांत से हों।
वैसे छोटी उम्र में दिमाग इतना लचीला होता है कि अगर मां गुजराती बोले, पिता हिंदी, तो बच्चा दोनों सीख लेगा। और स्कूल जाते ही अंग्रेजी भी पकड़ लेगा। हीन भावना तो मां-बाप को महसूस होती है, जब उनका तीन साल का बच्चा फर्राटेदार इंग्लिश में अंकल-आंटी को जवाब ना दे।
जोर-जबरदस्ती से प्रेम नहीं होता। भाषा का मामला भी कुछ ऐसा ही है। हिंदी की किताब पढ़ने की आदत मेरी छूट गई थी। लेकिन फिर कोविड के दौर में हिंदी साहित्य की मशहूर कहानियों का ऑडियो सुना। फिर उनकी किताब पढ़ने की इच्छा हुई। हास्य कवि सम्मेलन, मुशायरे और नाटक का भी एक अलग आनंद है।
तरक्की के पथ पर अंग्रेजी जरूरी है मगर हर वक्त अंग्रेजी झाड़ना फैशन हो गया है। सवाल अगली पीढ़ी का है। हर भाषा में रस है। अपनी भाषा का रस उन्हें पिलाना है। मैं कौन हूं, याद दिलाना है।