कहीं आप लापता ड्राइवर वाली गाड़ी में तो नहीं बैठे
सुबह आंख खुलते ही मन में पहला खयाल क्या आता है? गर्म चाय की प्याली हो जाए। कड़क वाली, अदरक इलायची के साथ। कोई बनाकर दे दे तो वाह। नहीं तो उबासी लेते हुए, गैस पर पतीला चढ़ाओ। फिर भी जब चाय खौलकर ऊपर उठती है, खुशबू नाक तक पहुंचती है, सारी मेहनत सफल।
अब सुबह की चाय तो सब पीते हैं, कोई बड़ी बात नहीं। छोटी-सी आदत। मगर सोचने की बात ये है कि ऐसी हमारी कितनी आदतें हैं? खाने-पीने के मामले में, पहनावा, बोल-चाल और सोच। देखा जाए तो हमारे जीवन का काफी हिस्सा ऑटो-पायलट पर चल रहा है। ऐसी गाड़ी जिसका ड्राइवर लापता है।
कुछ लोगों को छोटी-छोटी बात पर गुस्सा आता है। उस वक्त वो क्या बोल देते हैं, उन्हें होश ही नहीं। अगर स्नेहशील पति-पत्नी मिल गया, तो ठीक है। काम चल जाता है। कुछ देर बाद वो शख्स ठंडा होकर माफी भी मांग लेता है। मगर इसकी कोई गारंटी नहीं कि दोबारा दिमाग का एटम बम कब फूटेगा।
वैसे बुरी आदतें फेविकॉल के जोड़ की तरह मजबूत होती हैं। अब किसी का रूटीन है रोज सुबह साढ़े छह बजे योगाभ्यास। दो हफ्ते छुट्टी पर गए, वहां उन्होंने बंद कर दिया। वापस लौटने पर उठने में आलस आ रहा है। अंदर नालायक-सी आवाज फुसफुस कर रही है- ‘छोड़ो ना, सो लें थोड़ा और।’ दूसरी तरफ बुरी आदत छोड़ना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल है।
जैसे आपने कॉलेज में सिगरेट एक बार ट्राय की। पहली बार भयानक खांसी हुई। लेकिन दो-तीन बार और फूंकी तो मजा आने लगा। अब बीस साल से आधा पैक पीने की आदत पड़ गई। कई बार छोड़ने की कोशिश की मगर नाकाम। क्योंकि सिगरेट-दारू इत्यादि कुछ क्षण के लिए दिमाग सुन्न कर देते हैं। सारी परेशानियों की गूंज सुनाई नहीं देती। लेकिन जब नशा उतरता है, हालात तो वही। इसलिए फिर एक पैग, एक सुट्टे की चाह। इसको कहते हैं एस्केपिज्म- अपने आप और अपनी असलियत से भागने का प्रयास।
वैसे अपने आप से भागने के तरीके अनेक हैं। जैसे कुछ लोगों को जब ‘लो फीलिंग’ आती है, वो ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं। कपड़े, जूते, इलेक्ट्रॉनिक्स- कार्ट में डालकर चेकआउट करने का थ्रिल होता है। पता है घरवाले चिढ़ेंगे कि रोज पार्सल क्यों आ रहा है। इसलिए छुप-छुपकर भी करना पड़ता है।
अलमारी भर गई है ऐसे आइटम से, जो यूज़ भी नहीं हो सकती, रिटर्न भी नहीं। फिर ये भी एक तरह की लत है। कुछ लोग खाने को दुख-दर्द का साथी बना लेते हैं। तो क्या हुआ अगर दो-चार चिप्स खा लिए, आप कहेंगे। तकलीफ ये है कि जब पैकेट हाथ में है, संयम में रह ही नहीं सकते। (याद है वो विज्ञापन- ‘नो वन कैन ईट जस्ट वन’) ये प्रोडक्ट जानबूझकर इस तरह डिजाइन किए जाते हैं। सवाल ये है, इनके जाल से बचें कैसे।
जब आप उदास हैं, न कोई पास है- कैसे मन हल्का करें? एक सुझाव मेरी तरफ से
दिल की बात कागज पर लिख डालिए। कलम उठाइए, जैसे खयाल आते हैं, बहने दीजिए। अंदर की बात अंदर न रहने दीजिए। आंसू टपकने लगें, तो भी कलम चलती रहे। आने दो बाहर वो जज्बात अनसुने-अनकहे। जब पतीले में पानी उबल जाता है, छलक पड़ता है।
आक्रोश अंदर दबाकर जो जीता है, अपना गम हंसकर पीता है। है तो वो इंसान ही। कोई नीलकंठ भगवान नहीं। उन्होंने तो जहर का अमृत बना दिया। आपने उगलकर अपना नुकसान किया। इसलिए गुस्सा, गिले-शिकवे कागज पर थूक दें। अंदर की आग को हल्के से फूंक दें। अगर तहे दिल से आपने लिख डाला, हल्का होने लगेगा वो प्याला।
तो रखिए कागज-कलम अपने पास, शेयर कीजिए अपनी भड़ास। कागज सिर्फ सुनता है, राय नहीं देता। हर भावना को बखूबी लपेट लेता। तो आजमाइए ये उपाय। अगर हल्का महसूस करें, तो ईमेल से मुझे जरूर बताएं।