जब बाहर सबकुछ बदल रहा हो तो आपको स्थिरता प्राप्त होगी अपने अंदर के उसूलों से
घर का खाना बोर लग रहा है? स्विगी इट का जमाना है। लेकिन हैदराबाद में एक जनाब ने तो कमाल ही कर दिया। एक साल में 8428 प्लेट इडली ऑर्डर करके रिकॉर्ड बना डाला। जी हां, सिर्फ इडली पर उन्होंने छह लाख खर्च कर दिए। जितने की नई कार आ सकती है, उतने की वो इडली हजम कर गए।
मैंने सोचा, छह लाख खर्च करना ही था तो एक अव्वल दर्जे का बावर्ची रख लेते, जो दिन-रात गर्मागर्म इडली और साम्भर तैयार रखता। लेकिन शायद उन्हें वो झंझट पालना ही नहीं। बाजार से राशन मंगवाओ, गैस खतम है, बुक करवाओ। ना जी ना, ऐसे तुच्छ काम के लिए हमने जनम थोड़े ही लिया!
हंसने की बात नहीं, ऐसे बहुत नमूने हैं। सच कहूं तो मैं भी पढ़ाई-लिखाई में इतनी मशगूल थी कि मैंने किचन के काम नहीं सीखे। शादी के बाद चने की दाल और तुअर की दाल का फर्क मालूम नहीं पड़ता था। मम्मी को फोन लगाकर पूछती थी- प्रेशर कुकर में कितनी सीटी दूं?
खैर, भगवान ने मुझ पर कृपा करी। फरिश्ते के रूप में पहुंची एक लड़की, जिसने मुझे इन जिम्मेदारियों से मुक्त किया। पिछले बीस साल से मेरा घर वही सम्भाल रही है, आज हमारे परिवार का हिस्सा है वो। मगर ऐसा सुख आने वाली पीढ़ी को शायद ही मिलेगा।
हर गली-कूचे-कस्बे में हर बच्चा स्कूल जा रहा है। मजदूर का बेटा और कामवाली की बेटी अलग रास्ते पर चलना चाहते हैं। अच्छी बात है, मगर इसका असर आपकी जिंदगी पर जरूर पड़ेगा। बर्तन, झाडू-पोंछा इत्यादि के लिए इंसान नहीं, मशीन का सहारा लेना पड़ेगा।
आजकल चैटजीपीटी का बोलबाला है- आदेश दो और वो काम फटाफट करेगा। ऐसा ही गुलाम हमें घर पर भी चाहिए। क्योंकि मशीन तो हैं, मगर उनमें भी हमारी मेहनत लग रही है। कपड़े डालो, बटन दबाओ, फिर धुले हुए कपड़ों को सुखाओ। हमें चाहिए वॉशजीपीटी, कुकजीपीटी, क्लीनजीपीटी।
शायद तकनीकी जीनियस से ये भी ईजाद होगा। मगर मुझे शंका है। हो सकता है कि दिमाग वाले सारे काम कम्प्यूटर हमसे छीन ले। घर के काम भी सम्भाल ले। फिर इनसान करेगा क्या? एक हफ्ते की छुट्टी तब प्यारी लगती है, जब तीन हफ्ते काम किया हो। अगर धूप नहीं तो छांव की क्या अहमियत?
मुझे लगता है कि हम काम तो करते रहेंगे, सिर्फ उसका रूप बदलेगा। मगर दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है। स्कूल-कॉलेज में जो भी सिखाया जा रहा है, बेमतलब हो जाएगा। बार-बार समय के मुताबिक अपना ज्ञान, अपना व्यक्तित्व आपको विकसित करना होगा। और जब बाहर सबकुछ बदल रहा हो तो आपको स्थिरता प्राप्त होगी अपने अंदर के उसूलों से।
सबसे पहला उसूल ये कि काम एक साधना है। उस से डरना नहीं, कतराना नहीं। एक कॉलेज में मैंने देखा कि डाइनिंग हॉल में हर विद्यार्थी को अपने खाने के बर्तन खुद धोने का रूल है। कुछ बच्चे नाराज हुए मगर प्रिंसिपल बोले, गांधीजी के आश्रम में भी तो ये ही प्रथा थी। तो उनके मां-बाप भी चुप हो गए।
दूसरा उसूल है कि छोटे से छोटा काम दिल और दिमाग से करना होगा। अमेरिका के एक नामी मिलिट्री अफसर ने किताब लिखी है, मेक योर ओन बेड। इसका सार ये है कि ट्रेनिंग के दौरान हर कैडेट को सबसे पहले अपना बिस्तर ठीक करना होता था। उसका इंस्पेक्शन होता था। एक सिलवट भी दिखी तो सजा मिलती थी।
अब लड़ाई के मैदान से बिस्तर ठीक करने का क्या लेना-देना? बात ये है कि कैरेक्टर कैसे बनता है? आप जो हैं, हैं। वो जीवन के हर पल में झलकेगा। कोई ऑन-ऑफ बटन थोड़े ही होता है। तो अगर आपका उसूल है कि हर काम सही तरीके से, सही समय पर करना है, तो वो आपके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है।
अकसर हम बच्चों को सीख देते हैं, ताकि वो अच्छी आदत अपनाएं। अच्छे गुण पाएं। कहने से कुछ नहीं होता। वो मां-बाप को ऑब्जर्व करते हैं। अगर आप आलसी हैं तो क्या वो चुस्त होंगे? तो तीसरा उसूल ये है कि जो गुण आप दूसरों में देखना चाहते हैं, पहले अपने में पैदा करें।
एआई की शक्ति बढ़ रही है, तो हमें अपनी आत्मशक्ति बढ़ानी होगी। क्योंकि ये ही एक गुण आज कम्प्यूटर में नहीं है। चैटजीपीटी तो ठीक है, सेल्फजीपीटी पर ध्यान दीजिए। बेहतर इंसान बनना है, यह ठान लीजिए।
आत्मशक्ति ही एक ऐसा गुण है, जो आज कम्प्यूटर या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के पास नहीं है। ऐसे में चैटजीपीटी तो ठीक है, सेल्फजीपीटी पर ध्यान दीजिए। बेहतर इंसान बनना है, यह ठान लीजिए।