जैसा देस वैसा भेस, इसलिए वर्किंग वुमन आजमाएं साड़ी की अदा और साड़ी का ग्रेस
17.06.2022
कुछ दिन पहले एक टीवी चैनल से एक रियलिटी शो में शामिल होने का न्योता आया। चूंकि कार्यक्रम का कंटेंट ठोस था, शिक्षात्मक था, मैंने हां कह दी। आइकन्स ऑफ भारत नाम के इस शो में हर हफ्ते कुछ लघु उद्योग शुरू करने वाले अपनी प्रेरणादायक कहानियां सुनाएंगे। और मैं, ज्यूरी मेम्बर के रोल में उनमें से एक श्रेष्ठ आइकन चुनूंगी।
चूंकि इतने सारे स्टार्टअप्स को देख चुकी हूं, परख चुकी हूं, यह काम तो मेरे लिए आसान था। लेकिन एक मुश्किल जरूर थी- शो के दौरान पहनूंगी क्या? क्या शार्क टैंक की तरह कुछ रंग-बिरंगे, ऊटपटांग कपड़े मुझे पकड़ा दिए जाएंगे? ना बाबा ना, मुझे मंजूर नहीं। कुछ सालों से मैं देख रही हूं कि हर टीवी चैनल पर ज्यादातर एंकर वेस्टर्न स्टाइल के कपड़े ही पहनते हैं। और ये ट्रेंड सिर्फ टीवी पर नहीं, कॉर्पोरेट दुनिया में भी साफ नजर आता है।
किसी भी एमएनसी ऑफिस में आप चले जाइए, वर्किंग गर्ल्स शर्ट-पैंट में ही मिलेंगी। ये सिलसिला एमबीए कॉलेज से शुरू हो जाता है। मैं जब लेक्चर देने जाती हूं तो सभी विद्यार्थी एक जैसा काला ब्लेजर पहने हुए दिखते हैं। इसी को प्रोफेशनल ड्रेस माना जाता है। जब प्लेसमेंट का समय आता है तो लड़कियां इसी अंदाज में तैयार होकर इंटरव्यू के लिए जाती हैं। वैसे जब मुझे आईआईएम अहमदाबाद से प्रवेश-पत्र मिला था तो उसमें लिखा था कि हर लड़की अपने साथ एक या दो साड़ी जरूर लेकर आए।
इसी को लड़कियों का पॉवर ड्रेसिंग माना जाता था। हमारे कन्वोकेशन में हर लड़की ने सुंदर साड़ी पहनी थी। जब कि इस साल के कन्वोकेशन में आपको एक भी साड़ी नजर नहीं आएगी। तो हुआ क्या? पिछले दो-तीन दशक में साड़ी एक झंझट वाली ड्रेस बन गई। लड़कियां गर्व के साथ कहती हैं कि मुझे तो खुद बांधनी भी नहीं आती। दूसरी ओर साड़ी एक बंधन वाली ड्रेस बन गई। कई लड़कियों को शादी के बाद कहा जाता था कि अब आपको सिर्फ साड़ी पहनना होगी। ये हमारे घर का उसूल है।
कौन पसंद करेगा ऐसी डिक्टेटरशिप? हर किसी को अपने तरीके से ड्रेस-अप करने की आजादी होनी चाहिए। मगर मेरा कहना ये है कि साड़ी की अपनी एक खास अदा है। जापान में पारम्परिक ड्रेस किमोनो अब कोई नहीं पहनता। कोरिया और चीन में भी यही हाल है। भारत में साड़ी अब भी प्रचलित है, ये बहुत बड़ी बात है। मगर धीरे-धीरे एक फैंसी ड्रेस बन रहा है, नई पीढ़ी के लिए। मैंने भी अपनी वर्किंग लाइफ में सुविधाजनक कपड़े ही अपनाए।
पहले सलवार कमीज, फिर लेगीज और ज्यादातर कुर्ता विद जींस। लेकिन एक दिन मेरी बचपन की सहेली घर आई और मैं उसे देखकर हैरान। हमेशा टी-शर्ट और जींस पहनने वाली साड़ी में! ये चमत्कार कैसे? उसने बताया कि मुझे हैंडलूम से प्यार हो गया है। देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों की पारम्परिक साड़ी पहनना मेरा नया शौक है। सचमुच वो बहुत एलीगेंट लग रही थी। मेरा मन हुआ कि मैं भी ये फैशन आजमाऊं। और धीरे-धीरे मुझे भी हुआ हैंडलूम साड़ी से प्यार।
मैं जहां टूर पर जाती, उस जगह की एक साड़ी जरूर खरीदती। अपनी किताबों के फंक्शंस में मैंने साड़ी पहनी तो सब ने बहुत सराहा। मेरा कॉन्फिडेंस बढ़ा, इस पहनावे से प्रेम भी। इसलिए टीवी चैनल वालों को मैंने कहा कि शो पर मैं साड़ी ही पहनना चाहूंगी, वो भी अपने चॉइस की। उन्होंने कहा, ठीक है। मन में थोड़ी शंका तो हुई कि 14 दिन तक रोज साड़ी… घुटन तो नहीं होगी?
असल में दो-तीन दिन में ही मैं इतनी कम्फर्टेबल हो गई कि पांच मिनट में तैयार, वो भी बिना मदद के। मैंने साड़ी ऐसी चुनी जो सोबर हो मगर आकर्षक। प्रोफेशनल लुक के लिए मैंने पहना तसर सिल्क या हैंडलूम कॉटन, प्लेन या प्लेन विद बॉर्डर। ब्लाउज भी मिक्स एंड मैच स्टाइल का, जिस से कुछ हटकर लगे।
मेरी सलाह है कि ऑफिस में अगली बार जब कोई प्रजेंटेशन देनी हो तो साड़ी पहनकर जाएं। देखिए लोगों पर क्या असर पड़ता है। और हां, मेरा प्रोग्राम भी यूट्यूब पर देखें। शायद आपको एक लघु उद्योग शुरू करने की प्रेरणा मिले। या फिर मेरी तरह साड़ी पहनने की। जैसा देस वैसा भेस। आजमाइए साड़ी की अदा, साड़ी का ग्रेस।
कुछ सालों से देख रही हूं कि टीवी चैनल पर ज्यादातर एंकर वेस्टर्न कपड़े पहनते हैं। ये ट्रेंड कॉर्पोरेट दुनिया में भी नजर आता है। किसी भी एमएनसी ऑफिस में चले जाइए, वर्किंग गर्ल्स शर्ट-पैंट में ही मिलेंगी।