समय असली सोना है, वो हमें नहीं खोना है; जरूरत है अदालतों को अब आधुनिक युग में कदम रखते हुए बदलाव की
17.11.2021
क्या आप किसी कोर्ट-कचहरी के मामले में फंसे हुए हैं? क्या आपने काले कोट वाले वकील को कभी सुना है यह कहते हुए, मिलॉर्ड, मेरे मुवक्किल को बाइज्जत बरी किया जाए। नहीं न। तमाम गवाहों के बयानात और सबूतों को मद्देनजर रखते हुए अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि…… ऐसी अदाकारी सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर ही आपको देखने मिलेगी। असल मामला कुछ और ही है। मगर एक शख्स ने इस असलियत को स्क्रीन पर बखूबी दर्शाया है।
वो खुद महीनों तक कोर्ट में एक ऑब्जर्वर के रूप में जाया करते थे, यह समझने के लिए कि आखिर वहां होता क्या है। इस आधार पर उन्होंने बनाई एक फिल्म, जिसका नाम है ‘कोर्ट’। मराठी में चैतन्य तम्हाणे द्वारा रची गई यह पिक्चर जब मैंने देखी तो ऐसा लगा कि यह कोई फिल्मी सेट नहीं है। बल्कि एक जीती-जागती लोकेशन है। न्यायाधीश महोदय अपने स्थान पर बैठे हैं, उनके बगल में एक क्लर्क बैठा है, जिनके सामने कम्प्यूटर रखा है।
मगर कमरे में हर तरफ सिर्फ एक ही चीज नजर आती है: वह है कागज की ढेर सारी फाइलें। देखने में एकदम पुरानी, बिल्कुल गयी-बीती। और आखिर ऐसी क्यों न हों। केस चलते हैं सालों-साल…. चाहे उनमें कोई तुक हो या न हो। ऐसा ही एक वाहियात केस ‘कोर्ट’ फिल्म में भी देखने को मिलता है। झोपड़-पट्टी में रहने वाले पच्चीस वर्षीय प्रदीप शेल्के ने आत्महत्या की।
वो म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की गटर साफ करने का काम करते थे और उसी गटर के अंदर उनकी मौत हो गई। तो क्या यह एक एक्सीडेंट नहीं हो सकता? नहीं हो सकता, क्योंकि पूछताछ के दौरान पुलिस को एक इंफॉर्मेशन मिली कि दो दिन पहले, उसी एरिया में किसी ने क्रांतिकारी गीत गाये थे। पुलिस का यह कहना था कि उन गीतों के बोल कुछ इस तरह के थे कि प्रदीप ने सुनकर अपनी जान ले ली।
इसलिए 65 वर्षीय नारायण कांबले को ‘एबेटमेंट ऑफ सुसाइड’ यानी आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। ऑडिएंस गीत सुन चुकी है, उसमें ऐसी कोई लाइन नहीं है। मगर अब यह कोर्ट का मामला बन गया है। कांबले को अपनी बेगुनाही वहीं साबित करनी पड़ेगी। जब कांबले को कोर्ट में पेश किया जाता है, तब उनके वकील जमानत की याचिका पेश करते हैं।
जज उसे रिजेक्ट कर देते हैं, टेक्निकल ग्राउंड पर। और कांबले को 12 दिन की ज्यूडिशियल कस्टडी में लिया जाता है। वकील दोहराता है कि आपके पास डिस्क्रिशन है, यानी कि स्वविवेक। उसका इस्तेमाल करें। मगर जजसाहब अपना निर्णय नहीं बदलते हैं। ऐसा सीन रोज हर कोर्ट में आपको देखने मिल जाएगा। कभी-कभार जब किसी जानी-मानी हस्ती के साथ ऐसा होता है, तो आप अखबार में इसके बारे में पढ़ेंगे। नहीं तो, उस बदकिस्मत और उसके परिवार के अलावा किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता।
‘कोर्ट’ फिल्म में कांबले को एक अच्छा वकील प्राप्त होता है, जो बिना पैसे लिए केस लड़ता है। मगर ऐसा भाग्य सबका नहीं होता। कानून के मुताबिक हर आरोपी को सरकार की तरफ से वकील प्राप्त होता है। मगर माना जाता है कि ऐसा वकील जी-जान लगाकर तो आपका केस लड़ेगा नहीं। इससे जो गरीब है या फिर अनपढ़ और लाचार, उसकी आजादी आसानी से छिन जाती है। आज देश में करीब 3.5 लाख कैदी हैं, जिनमें से 70 फीसदी अंडरट्रायल हैं, यानी कि अभी उनके केस की सुनवाई चल ही रही है।
अपना गुनाह साबित हुए बगैर ही वो सजा भुगत रहे हैं। कोर्ट में आदमी आता है, आशा के साथ। मगर अक्सर उसे तारीख पर तारीख मिलती है, और औसतन केस 10, 15 या 20 साल भी चल सकता है। कभी जजसाहब छुट्टी पर, कभी वकील समय मांगते हैं। कुछ वकील लालची होते हैं और सोचते हैं कि जितना लंबा केस चलेगा, उतनी उनकी कमाई होगी। आज देश में 4.5 करोड़ केस दर्ज हैं, एक अनुमान के मुताबिक इन्हें निपटाने के लिए 360 साल लगेंगे। जिसे आप एक त्रासदी मान सकते हैं, या ब्लैक कॉमेडी।
कहीं आपका मामूली-सा झगड़ा हुआ, या फिर सोशल मीडिया पर जोक शेयर कर दिया, केस दर्ज करवाना हमारे देश में बहुत आसान है। आप निर्दोष हैं, यह साबित करना महंगा है, और मुश्किल। भाई और भाई, पति और पत्नी, किरायेदार और मकान मालिक, आज हर कोई अदालत का दरवाजा खटखटाता रहता है।
इनमें से बहुत से ऐसे भी होते हैं जो न्याय पाने के लिए नहीं, बल्कि अपने ‘दुश्मन’ को परेशान करने के लिए ऐसा करते हैं। निराश, हताश और बदमाश, सभी कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। जरूरत है ज्यूडिशियल रिफॉर्म यानी न्यायिक सुधारों की, अंग्रेजों की बनाई हुई दंड संहिता को बदलने की। कोर्ट को आधुनिक युग में कदम रखना होगा। उम्मीदों पर खरा उतरना होगा। समय असली सोना है, वो हमें नहीं खोना है।