बिजनेस की तरह संस्कृति में भी इनोवेशन होना जरूरी है, भरतनाट्यम की कहानी बताती है कि परंपरा अमूल्य है, पर समय के साथ बदलना जरूरी है
21.07.2021
कुछ दिन पहले, मेरी बचपन की सहेली की सुपुत्री का अरंगेत्रम संपन्न हुआ। अरंगेत्रम यानी भरतनाट्यम की दुनिया में अहम दिन। इस दिन शिष्य को पहली बार दुनिया के सामने कला के प्रदर्शन का मौका मिलता है। इसे ही कहते हैं, ‘प्रोफेशनल डेब्यू’। प्रोग्राम अमेरिका में था मगर यूट्यूब पर दुनियाभर में परिवार और मित्रजनों ने आनंद लिया। नृतकी अनिका भागवतुला के हाव-भाव और कला के प्रति निष्ठा देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो गए। अमेरिका में भारतीय संस्कृति बनाए रखने के लिए, मेरी सहेली को काफी प्रशंसा भी मिली।
आज भरतनाट्यम हमारे देश की धरोहर है। लेकिन सिर्फ सौ साल पहले ये धरोहर लुप्त होने की स्थिति में थी। जिस कला को हम आज ‘क्लासिकल डांस’ मानते हैं, उसका स्वरूप कुछ और था। इस परंपरा को जीवित रखने वाली औरतें ‘देवदासी’ कहलाती थीं। देवदासी यानी कि भगवान की सेवा में समर्पित कन्या। यह दक्षिण भारत की प्रथा थी, जहां छोटी उम्र में लड़की की ‘शादी’ देवता से कर देते थे।
ईश्वर को अर्पित देवदासी मंदिर की देख-रेख का दायित्व उठाती, जिसमें भक्ति के गीत-संगीत व नृत्य रचना भी शामिल था। पुरातन काल में देवदासी को समाज में आदर-सम्मान मिलता था। मगर मुगल व अंग्रेज शासकों के गले यह परंपरा उतरी नहीं। धीरे-धीरे देवदासियों का शोषण होने लगा, उनकी कला को समझने व सराहने वाले कम हो गए।
इस नाजुक दौर में प्राचीन परंपरा बचाने के लिए श्रीमति रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने कदम बढ़ाया। ब्राह्मण परिवार में जन्मीं रुक्मिणी देवी ने पहले ही रूढ़िवादियों को हिला दिया, जब 16 साल की उम्र में उन्होंने चालीस वर्षीय इंग्लिशमैन जॉर्ज अरुंडेल के साथ शादी कर ली। उनके पति थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़े थे, इसलिए उनकी मुलाकात जानी-मानी हस्तियों से हुई। इनमें एक थीं प्रसिद्ध बैले डांसर एना पावलोवा। उनसे प्रोत्साहन पाकर रुक्मिणी देवी ने पहले वेस्टर्न डांस सीखा और फिर भारत की नृत्यकला की तरफ उनका ध्यान गया।
वर्ष 1934 में वे मायलापुर गोवरी अम्मा की शिष्या बनीं और एक साल बाद पहला पब्लिक परफॉर्मेंस दिया। शहर में हलचल मच गई, क्योंकि पहली बार देवदासियों से जुड़ा नृत्य किसी बाहर वाले ने प्रदर्शित किया। वो भी एक ‘अच्छे खानदान की लड़की ने?’ है न! मगर दर्शकों को डांस पसंद आया, जिससे रुक्मिणी देवी को जोश मिला।
उन्होंने देवदासियों के पारंपरिक नृत्य को नए रूप में प्रस्तुत करने की ठानी। स्टेज लाइटिंग से लेकर डांसर के कॉस्ट्यूम तक, और हां, नटराज की मूर्ति, जो आज हर परफॉर्मेंस का अभिन्न अंग है, यह सब रुक्मिणी देवी की देन है। वैसे देवदासी परंपरा में नृत्य का नाम ‘सादिर’ था, उन्होंने इसे नया नाम दिया, ‘भरतनाट्यम’। एमबीए की भाषा में इसे ‘रिब्रांडिंग’ कहते हैं। वर्ष 1936 में उन्होंने संस्था स्थापित की ‘कलाक्षेत्र’। एक गुरुकुल जहां से भरतनाट्यम लोगों तक पहुंचाने का अभियान शुरू हुआ।
वर्ष 1951 में जब कलाक्षेत्र नए कैंपस में शिफ्ट हुआ, रुक्मिणी देवी ने नन्हा-सा पौधा लगाया। वो आज एक विशाल बरगद का पेड़ है, जिसकी जड़ें मजबूत हैं और शाखाएं फैली हुई। भरतनाट्यम की ही तरह। 1977 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रुक्मिणी देवी को पहली महिला राष्ट्रपति बनने का आमंत्रण दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। उनका दिल, दिमाग, आत्मा कलाक्षेत्र में घुल-मिल चुकी थी। कभी लगता है, एक इंसान कौन-सा तीर मारेगा। पर अर्जुन की तरह, सिर्फ मीन की आंख पर फोकस हो, तो मुमकिन है। कमान उठाएं, निशाना लगाएं। कुछ तो होगा।