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0 (0) Rashmi Bansal is a writer, entrepreneur and a motivational speaker. An author of 10 bestselling books on entrepreneurship which have sold more than 1.2 ….

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ये चलचित्र हर स्कूल के सिलेबस में शामिल होना चाहिए, 1955 में रची ‘पाथेर पांचाली’ दुनिया की सबसे बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है

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23.06.2021

कलकत्ते में रहने वाले एक युवक को फिल्म देखने का बड़ा शौक था। वैसे वो एक एड एजेंसी में अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे, मगर अपने जैसे फिल्म प्रेमियों के साथ मिलकर उन्होंने एक संस्था शुरू की। जिसका नाम था कलकत्ता फिल्म सोसायटी। छुट्‌टी के दिन इस संस्था के सदस्य दुनियाभर की विख्यात फिल्मों का आनंद लेते, फिर उन पर विचार-विमर्श भी करते।

उस जमाने में मशहूर साहित्यकारों की कहानी या किताब के आधार पर काफी फिल्में बनती थी। जब कोई ऐसी घोषणा होती, तो ये श्रीमान शौकिया तौर पर उसी कहानी का स्क्रीनप्ले यानी कि पटकथा लिख डालते। कई लोगों ने उनसे कहा, आप खुद फिल्म क्यों नहीं बनाते। वो बात को टाल देते थे। वजह ये थी कि जिस तरह की फिल्म वो बनाना चाहते थे, उसका कोई मार्केट नहीं था।

एक ऐसी फिल्म जिसमें ना कोई नाच-गाना हो, ना कोई स्टार। जो सिर्फ एक मजबूत कहानी पर आधारित हो। (और ऐसी एक कहानी उनकी नज़र में थी भी) जब काम के सिलसिले में उन्हें लंदन भेजा गया तो वहां उन्होंने देखी फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स।’ तब उनका हौसला बढ़ा कि हां बिना सेट या स्टूडियो के एक अलग तरह की फिल्म भी बनाई जा सकती है।

काश, किसी प्रोड्यूसर के गले ये बात उतरी नहीं। आखिर अपनी इंश्योरेंस पॉलिसी के बल पर लोन लिया, कुछ दोस्तों से उधार और फिल्म बनाने चल पड़े। कहानी गांव की थी, सो पहला सीन खेत में शूट किया। हवा में लहराते हुए कास के फूलों के बीच भागते दो बच्चे, पहली बार ट्रेन देखते हैं।

शूटिंग होती थी सिर्फ रविवार को, क्योंकि बाकी दिन सब नौकरी-पेशे में लगे हुए थे। अगले हफ्ते जब उसी लोकेशन पर पहुंचे, नजारा एकदम बदला हुआ मिला। गाय-बैल फूल खा गए थे, बची सिर्फ घास! खैर, निर्देशक काफी धैर्यवान थे। एक साल बाद, जब खेत फिर फूलों से भरा, तब वही सीन फिल्माया गया। ठीक उस तरह जैसे उसकी कल्पना की गई थी।

पैसों की कमी फिर महसूस हुई, तो निर्देशक की पत्नी ने गहने गिरवी रखे। बस एक उम्मीद थी कि फिल्म के गिने-चुने हिस्से देखकर, शायद कोई प्रोड्यूसर प्रभावित हो जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आखिर निर्देशक मायूस हो गए। इस पड़ाव पर साथ दिया उनकी माताजी ने।

वैसे तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था कि उनका बेटा फिल्म की दुनिया में दाखिल हो। मगर अब पानी सर पर चढ़ चुका था। माताजी ने किसी की मदद से बंगाल के मुख्यमंत्री बी सी रॉय से संपर्क किया। सीएम ने फिल्म की थोड़ी फुटेज देखी। ग्रामीण जीवन के ऊपर एक डॉक्यूमेंट्री समझकर, उन्होंने दो लाख रुपए सेंक्शन कर दिए।

चलते-चलते एक टिप्पणी भी दी कि अंत में आप यूं दिखा देना कि परिवार को सरकारी स्कीम से सहायता मिली। निर्देशक ने चुपचाप सुन लिया। पर करी अपने मन की। फिल्म की शूटिंग खत्म हुई, फिर ग्यारह घंटे की एक सिटिंग में संगीत रचा गया। और बेतहाशा गति से सात दिन, सात रात में एडिटिंग का काम संपूर्ण हुआ।

न्यूयॉर्क में जब फिल्म पहली बार प्रदर्शित हुई, दर्शक हिल गए। 1955 में रची ‘पाथेर पांचाली’ आज भी दुनिया की सबसे बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है। कुछ दिन पहले तक मुझे लगता था कि अतिश्योक्ति है। मगर हाल ही में, जब मैंने पहली बार पाथेर पांचाली देखी तो मैं मंत्रमुग्ध हो गई। एहसास हुआ कि इस रचना में आध्यात्मिक शक्ति है।

ये चलचित्र हर स्कूल के सिलेबस में शामिल होना चाहिए। जिस तरह हम महान लेखकों की कविता-कहानी पढ़ते हैं, वही दर्जा एक महान फिल्म मेकर का होना चाहिए। सत्यजीत रे की जन्मशताब्दी मनाने का ये एक उत्तम तरीका होगा। जिस से युवा पीढ़ी को प्रेरणा भी मिल सकती है। हमारे समाज में डिग्री का महत्व है। मगर बेहतरीन काम होता है मेहनत, निष्ठा और कल्पनाशक्ति के बल पर। इस शक्ति से जुड़े रहें। अपनी जीवन कथा खुद रचें। आपके मन के पर्दे पर क्या फिल्म चल रही है? उसका लेखक और निर्देशक कौन है? ये काम किसी को आउटसोर्स ना करें। लाइट, कैमरा, एक्शन!

 

 

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