130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश को एथलेटिक्स में खास सफलता नहीं मिली, चैम्पियन बनाने की रणनीति- धैर्य और मेहनत
17.03.2021
आठ हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित इटेन कस्बा केन्या के किसी भी आम कस्बे की तरह मालूम पड़ता है। कच्ची-पक्की सड़क, आसपास मक्के की खेती और रंगीन साप्ताहिक बाजार। लेकिन, इटेन में छोटे-बड़े ग्रुप्स में आपको बहुत सारे लोग दिखेंगे, दौड़ते हुए। यहां दौड़ लगाना एक मिशन है।
इस कस्बे ने दर्जनों लॉन्ग डिस्टेंस ओलिंपिक चैंपियन और मैराथन विजेता पैदा किए हैं। साधारण से ग्राउंड में, मिट्टी के ट्रैक पर, फटे-पुराने जूतों के सहारे ये कहानियां रची गईं। बच्चे-बच्चे का एक ही सपना है- मैं भी चैम्पियन बनूं।
वैसे तो कोई भी इटेन का भ्रमण करे, तो उसे प्रेरणा जरूर मिलेगी। मगर 2018 में जब नीतीश चीनीवर यहां पहुंचे तो ये उनके लिए एक ‘यूरेका मूमेंट’ था। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश को आज तक एथलेटिक्स में खास सफलता नहीं मिली। आखिर चैम्पियन बनाने का फॉर्मूला क्या है? हर देशवासी के मन में ऐसे सवाल आते हैं, लेकिन कोई जवाब नहीं।
नीतीश हमसे दो कदम आगे बढ़ चुके थे। वैसे तो उन्होंने बीटेक की डिग्री हासिल की, मगर उनका सपना था एफ-1 रेसिंग टीम के साथ काम करना। और इसे पाने के लिए वो कुछ भी करने को तैयार थे। यहां तक कि प्लेसमेंट ठुकरा कर उन्होंने एक मामूली से गैराज में जॉब ले ली।
फिर क्रेनफील्ड यूनिवर्सिटी से कोर्स भी किया। मगर यूके में नौकरी पाने के लिए काफी जूझना पड़ा। तब नीतीश को महसूस हुआ कि यूके में जिस तरह एक इंडियन को स्ट्रगल करना पड़ता है, अपने देश में गरीब वर्ग को टैलेंट के बावजूद मौका नहीं मिलता।
अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर नीतीश विदेश से लौट आए। दिल्ली के स्लम इलाके में ‘माइ एंजेल’ संस्था बच्चों को फुटबॉल ट्रेनिंग देती है। इस संस्था के काम को देखने-परखने के बाद, नीतीश ने ब्रिजेस ऑफ स्पोर्ट्स नाम से 2016 में अपना एनजीओ स्थापित किया।
जिसके तहत ओडिशा, एमपी और कर्नाटक में 2500 आदिवासी बच्चों को स्पोर्ट्स की ट्रेनिंग मिलने लगी। लेकिन इटेन विजिट के बाद नीतीश की सोच बदल गई। क्यों न हम भी ओलिंपिक चैंपियन बनाने पर अपना फोकस रखें? उन्होंने अपने प्रोग्राम में बदलाव किया और सिर्फ गिने-चुने बच्चों के साथ काम करने का फैसला किया।
ऐसे बच्चे, जिनमें कुछ मूल तत्व मौजूद हो। पहला, हुनर और दूसरा मेंटल एटीट्यूड। हुनर कुछ हद तक जीन में होता है। ओलिंपिक्स की हर दौड़ में आपने नोट किया हो, अधिकांश अफ्रीकन एथलीट जीतते हैं। नीतीश के ध्यान में भी ये बात थी।
इसलिए उन्होंने फोकस किया कर्नाटक की सिद्दी जनजाति पर। जो चार सौ साल पहले पुर्तगीज़ के साथ ईस्ट अफ्रीका से भारत आए और यहीं बस गए। जंगलों में रहने वाले सिद्दी समूह अपनी अलग दुनिया में रहते हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में काफी पिछड़े हुए भी हैं।
मगर जैसे कि नीतीश का अंदाजा था, उनमें दौड़भाग की प्रतिभा तीव्र है और आगे बढ़ने की दिली तमन्ना भी। बस उन्हें एक मौके की जरूरत थी। कर्नाटक के मुंडगोड में आज सिद्दी समूह के होनहार पंद्रह बच्चों को वैज्ञानिक तौर-तरीके से एथलेटिक्स की ट्रेनिंग मिल रही है।
रहने का इंतजाम, पौष्टिक आहार और बेहतर कोचिंग से उनका नैचुरल टैलेंट और उभर के आ रहा है। जमैका की उसेन बोल्ट अकेडमी भी नीतीश स्टडी करके आए, ताकि वहां की बेस्ट प्रैक्टिसेस अपना सकें।
सोते, जागते, दौड़ते मुंडगोड के बच्चों और उनके कोचेस का एक ही गोल है- अगले एक-दो साल में नेशनल मैडल और 2028 या 2032 में, ओलिंपिक गोल्ड मैडल। जब आप 8-10 साल बाद ये हैडलाइन पढ़ेंगे तो याद रखिएगा। कितनी मेहनत, दिक्कत और धीरज से मंजिल प्राप्त हुई।
आज मां-बाप कहते हैं, खेल-कूद बंद अब पढ़ाई करो, फ्यूचर बनाओ। मगर वो दिन जरूर आएगा जब खेल-कूद टाइमपास नहीं, कॅरिअर की दिशा बनेगा। हुनर के अनेक रंग हैं और हर रंग के सपने देखने की इजाज़त हो, तो ये देश कहां से कहां पहुंच जाए!
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